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बेटी हूँ मैं….
अपने अस्तित्व को तलाशती ,
खुद से पूछती हूँ?
आखिर पहचान क्या है मेरी?
बेटे के जन्म लेने पर
मानते हो खुशियाँ
और मेरे जन्म से पहले ही
धरकन की शुरुआत से
कोख में ही खत्म कर देते हो मुझे
अगर जन्म ले ली तो
मुझे देखते ही
छा जाता है
मौत सा सन्नाटा
बचपन घुटकर बिताती हूँ
दादी के ताने, पापा बेगाने
माँ जिसने जन्म दिया
उसका आँचल भी मेरा नहीं
क्या कसूर है मेरा?
बेटी हूँ मैं …….
थोड़ी जब मैं बड़ी हुई
सवालों से जुर जाता नाता
ऐसा मत करो?
ऐसे मत बोलो?
ऐसे मत चलो?
जाने क्या क्या?
जवाब बस यही की
पराये घर जाना है
बेटी हूँ परायी हूँअपनी किसकी हूँ?
ब्याहकर गयी ससुराल
तानो प्रश्नों के रूप बदल गए
दहेज में दिया क्या?
दुसरे की ही तो बेटी हो?
अपनाया किसी ने नहीं
वही परायापन
जब दी वंश का झिलमिलाता चिराग
सब राम गए उसी में
उनकी खुशियों में हो शामिल
मुस्करायी मैं भी
जब संस्कृति की आने वाले भविष्य की
मैं ही हूँ वाहक संवाहक
मुझसे ही होता नवसृजन
कोख में रखकर बीज को
देती हूँ मैं नवजीवन
फिर भी क्यों परायी हूँ मैं?
किसे अपना कहूँ मैं?
क्या इसलिए…..
कि
बेटी हूँ मैं?
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